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जितिया व्रत पर लोकृति जी ने बताया कैसे क्या होता है पूजा (पूरा पढ़े)

जितिया व्रत और मैं

यूँ तो जितिया व्रत की चील-सियारान की व्रत कथा बहुत प्रचलित है पर हर घर में जितिया की अपनी-अपनी व्रत कथा भी जरूर होती है, जो समय के साथ यादों और कहानियों में बदल जाती है। तो चलिए पहले जानते हैं जितिया व्रत के बारे में विस्तार से और फिर ले चलती हूं मैं आपको अपने साथ कहानियों के एक सफर में। जीवित पुत्रीका व्रत जिसे साधारण भाषा में जिउतिया या जितिया भी कहा जाता है सबसे कठिन व्रतों में से एक है क्योंकि इसमें व्रती महिलाएं लगभग छत्तीस घंटे निर्जला व निराहार रहकर इस व्रत को करतीं हैं। जितिया व्रत का आरम्भ हर साल आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि के नहाय -खाय से आरंभ होती है। नहाय -खाय का अर्थ होता है खुद को सात्विकता और शुद्धता से भर लेना। नहाय-खाय के दिन व्रती को बाल धोकर स्नान करने के पश्चात ही प्याज-लहसुन से परे विशेष रूप से साफ-सफाई के साथ भोजन बनाकर भोजन ग्रहण करने का नियम होता है। नहाय -खाय की रात्रि भोजन के पश्चात ब्रह्म मुहूर्त यानि सूर्योदय से पहले सरगी के रूप में कुछ मीठा खाया जाता है और दूध या शरबत पिने का नियम है। कुछ व्रती इसमें एक चम्मच घी भी पीती हैं। ऐसी मान्यता है की घी गले को कुछ हद तक तर रखता है। इसके बाद अखंड उपवास और संध्या काल के समय पीपल या पाकड़ वृक्ष की पूजा करते हुए राजा जितवाहन व चील-सियारिन की कथा सुन पंडित को दान किया जाता है और जितिया जो एक सोने या चांदी का बना लॉकेट की तरह होता है, धारण किया जाता है और एक खीरे को चढ़ाकर उसमें दिये की कालिख लगाई जाती है। इसके अतरिक्त हर घर के अपने भी कुछ अलग-अलग नियम होते हैं जिसके अनुसार व्रती अपनी पूजा सम्पन्न करतीं हैं फिर अगले दिन उसी अखंड उपवास की अवस्था में भात, कुसी कराई का झोर (दाल), अनेक प्रकार की सब्जियां और नाना प्रकार के व्यंजन अपनी इच्छा और सामर्थ्य के अनुसार व्रती पकाती हैं जिसे ‘पारण का भात’ कहते हैं। स्नान-दान पूजा-अर्चना करने के बाद सर्वप्रथम यह भोजन पितरों व चील-कौओं के नाम से दक्षिण दिशा में अर्पित किया जाता है उसके बाद गोटा (साबुत) देसी चना व खीरे के बीज को शरबत के साथ निगल कर व्रत तोड़ा जाता है और पूजा के दौरान चढ़ा हुआ जो खीरा था उसकी कालिख को माँ अपने बच्चों कि आँखों में काजल की तरह लगा देती है कहते हैं कि इससे आँखों की रौशनी तेज होती है फिर उसी खीरे को और प्रसाद के साथ बच्चों को खाने को दिया जाता है। इस खीरे को खाकर बच्चे दीर्घायु होते हैं। तो यह थी जितिया व्रत की विस्तृत जानकारी। चलिए अब मैं सुनाती हूं आपको इस व्रत से जुड़ी अपनी कहानी एक संवाद के रूप में “बक न मम्मी! हम नहीं जायेंगे बार-बार ऊ बकरी लोग को बनौना (सब्जी व फल के छिलके) देने। एक बार कहो तब ना तुम बार-बार भेजते रहती हो खाली मेरा काम बढ़ाते रहती हो।” ” जाओ ना बेटा तनी सा देले आना। देखो तो सब बकरिया गाभिन (गर्भवती) है। केतना भूख लगता होगा ऊ लोग को रे तुम को का पता?” “तो जो पाला है वह लोग जाने वह लोग हम लोग के भरोसे थोड़ी ना पाला है। जब खिलाना ही नहीं था तो फिर पाला ही क्यों?” “अब ई कोई बात हुआ, ई सब में ऊ बकरी लोग का का दोस? भूख से पालने वाला नहीं मर रहा मर तो ऊ अनबोलता धन रहा है न।” “अगर घर का जुट्ठा-कुट्ठा अउ बनौना से किसी का पेट भरता है तो तुमको का दिक्कत है? तनी सा जाहि न पड़ेगा। तुमको का पता माँ बनना केतना बड़ा तप है, केतना कष्ट है, केतना भूख लगता है उस समय। थोड़ा सा सेवा कर दिया करो उन लोग का भी।” “हम काहे करें सेवा ऊ गाय है का? सेवा तो गाय लोग का किया जाता है आखिर गाय हमारी माता है इसलिए उसका सेवा करने से पुण्य भी मिलता है।” “ठीक है तो बाकी जीव जंतु को यथासंभव अपना संतान मान के सेवा करो। संतान का सेवा करना कर्तव्य होता है और अपना कर्तव्य निभाने से भी पुण्य मिलता है। पुण्य कमाने के लिए जरुरी नहीं कि सोना-चाँदी, हिरा-मोती दान किया जाय। पुण्य कमाने के लिए तो घर का कचड़बो से आदमी पुण्य कमा लेता है। मन में बस सच्चा सेवा भावना होना चाहिए। जानते हो बेटा हम तुम लोग के लिए ई जितिया का व्रत काहे रखते हैं। काहे कि जो कोई भी कुछ बनाता है, गढ़ता, सृजन करता है ऊ हमेशा यही चाहता है कि उसका रचना युगों-युगों तक सुरक्षित रहे और मां बनना दुनिया का सबसे बड़ा कठोर तप है, सबसे अनोखा सृजन इसलिए एक मां कभी नहीं चाहती है कि उसके आंखों के आगे उसका सृजन पर कोई आंच भी आये। ए गो कहावत है न कि जेकर पैर में फटे बयार ओ ही जाने दरद का हाल। देखना जब तुम मां बन जाओगी ना तो तुमको भी बकरी, कुत्तिया, सुअरी, चुहिया हर मादा में बस माँ और उसका तप ही दिखने लगेगा। अपने नजर से तुम अभी बस इतना ही समझो कि अगर हम कभी न रहें या तुम कहीं जाओ और तुमको भूख लगे तो तुमको लोग खाना दे दे, प्यार करे, अपनी बेटी समझे ऊ अच्छा लगेगा या ई कह के दुत्कार दे कि भाग यहाँ से हमर बेटी है जे हम करिये? जे पैदा करलके है ऊ जाने।” “मम्मी दूसरा बाला।” “हाँ, तो समय कभी भी एक सा नहीं रहता, हमेशा बदलते रहता है बेटा तो अच्छे समय में वही बीज बोना जो बुरे समय में काट सको। सबको अपना मान के यथासम्भव सेवा करना पुण्य है और अपने- पराए में भेद करके केवल अपना सोचना पाप और यही तो है माया का बंधन भी। उस दिन के बाद से आज तक चाहे लाख व्यस्तता रही लेकिन मेरे द्वारा घर के कचरे से, जिसमें प्लास्टिक और हानिकारक अपशिस्ट का एक टुकड़ा भी न होता, बकरियों का पेट भरता रहा और सच जब मैं माँ बनने वाली थी तो कई बार ऐसे अवस्था से दो-चार हुई जब तबियत खराब होने के कारण खाना नहीं बना पाती थी और घर पे कोई होता भी नहीं था। सच मैं भूख से छटपटा उठती थी। तब कई बार अड़ोस-पड़ोस की मामी-चाची कुछ खाने को भिजवा देती थी और कई बार उनके घर के द्वार मेरी क्षुदा तृप्ति के लिए खुले मिलते थे मुझे। तब माँ की वो दो बातें कि अच्छे समय में वही बीज बोना जो बुरे समय में काट सको और जेकर पैर में फटे बयार वही जाने दरद का हाल… कान में गूंज जाया करती और सच अब मुझे भी सृष्टि की हर मादा प्रजाति में अपनी माँ की तरह ही केवल उसका माँ होना और उसका कष्ट और तप ही दीखता है और मैं भी आज ये कठोर व्रत कर पाति हूँ जबकि मुझे अपनी माँ को इस व्रत को करते देख बहुत अचम्भा होता था कि बिना खाए-पिए तो लोगो की बोलती ही बंद हो जाती है और वो इतनी सहजता से सब काम कर के अगली सुबह कैसे पारण का भात बनाती थी। पर सिर्फ एक प्रार्थना कि प्रभु मेरे व्रत को सफल करना और व्रत सफल हो जाता है। इसका फल मिलता है कि नहीं ये तो बस आस्था का विषय है लेकिन अक्सर जब हम कोई बड़ी परेशनी से उबर जाते हैं तो अक्सर लोगों को ये कहते सुना है “जरूर तोर माई जितिया करलको होत से-से तू बच गेलहीं न त मुस्किल हलओ बाबू।”

©️लोकृती गुप्ता ‘अनोखी’
रांची (झारखण्ड)

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